अति-पूँजीकरण के प्रभाव (Effects of Over-capitalization)
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अथवा
अति-पंजीकरण के दोष (Evils of Over-capitalization)
अति-पूँजीकरण एक ऐसी समस्या है जिससे छुटकारा पाना कम्पनी के लिए अत्यन्त आवश्यक हो जाता। है क्योंकि अति-पूंजीकरण का प्रभाव केवल कम्पनी पर ही नहीं बल्कि कम्पनी के सदस्यों एवं समाज के अन्य वगा पर भी पड़ता है। संक्षेप में, अति-पूंजीकरण के प्रभावों का आलिखित प्रकार वर्णन किया जा सकता
- कम्पनी पर प्रभाव (Effects on the Company)
(1) ऋण प्राप्ति में कठिनाई (Difficulty in obtaining loans)-अति-पूंजीकृत कम्पनियाँ साधारणतया नियमित रूप से ब्याज देने तथा नियत अवधि पर ऋण की राशि लौटाने में असमर्थ हो जाती हैं। ऐसी दशा में विभिन्न वित्तीय संस्थाएँ अति-पूँजीकृत कम्पनी को ऋण देने में हिचकिचाती हैं। ।
(2) पूँजी प्राप्ति में कठिनाई (Difficulty in obtaining capital)-अति-पूंजीकृत कम्पनी की आय निरन्तर घटते रहने से लाभांश की दर घटा दी जाती है। परिणामस्वरूप ऐसी कम्पनी से विनियोक्ताओं का विश्वास उठ जाता है। जिसकी वजह से विस्तार एवं विकास के लिए नये अंशों के द्वारा पूँजी प्राप्त करना कठिन हो जाता है।
(3) साख में बट्टा (Loss of goodwill)-अति-पूँजीकृत कम्पनी अंश-पूँजी पर उचित दर से लाभांश नहीं दे पाती है तथा अंशों का वास्तविक मूल्य उनके पुस्तकीय मूल्य से कम हो जाता है, परिणामस्वरूप कम्पनी की साख कम हो जाती है। __(4) समापन की माँग (Demand for winding-up)-चूँकि अति-पूँजीकृत कम्पनियाँ लिये गये ऋणों पर नियमित रूप से ब्याज देने एवं नियत देय तिथि पर ऋणों का भुगतान करने में असमर्थ होती हैं, जिसके कारण ऋणदाता वर्ग न्यायालय से कम्पनियों के समापन की माँग कर सकते हैं।
(5) प्रतियोगिता में न ठहर पाना (Lack of competitive strength)-अति-पूंजीकृत कम्पनियों में मशीनों एवं अन्य उपकरणों के प्रतिस्थापना एवं नवीनीकरण की समुचित व्यवस्था न हो पाने के कारण उत्पादन की प्रति इकाई लागत बढ़ने लगती है, परिणामस्वरूप कम्पनियाँ धीरे-धीरे प्रतियोगियों के समक्ष टिक पाने की शक्ति भी खो बैठती हैं।
अंशधारियों पर प्रभाव (Effects on Shareholders)
(1) पूँजीगत हानि (Capital loss)-अति-पूँजीकृत कम्पनी की दशा में नीची दर से लाभांश दिये जाने के कारण अंशों का बाजार-मूल्य कम हो जाता है, परिणामस्वरूप अंशधारियों को अपने अंश बेचने की दशा में पूँजीगत हानि उठानी पड़ती है।
(2) लाभांश की नीची दर (Low dividend rates)-अति-पूँजीकरण की दशा में कम्पनी पर्याप्त आय उपार्जित करने में असमर्थ रहती है, परिणामस्वरूप कम्पनी नीची दर से ही लाभांश दे पाती है।
(3) पुनर्संगठन पर हानि (Loss on reorganisation)-जब कोई अति-पूँजीकृत कम्पनी भंग हो जाती है या उसका नये सिरे से पुनर्गठन किया जाता है तो उससे होने वाली हानि अंशधारियों को ही वहन करनी पड़ती है।
- समाज पर प्रभाव (Effects on Society)
(1) घटिया किस्म एवं मूल्य में वृद्धि (Inferior quality and Price rising)-अति-पूँजीकरण | उत्पादित माल के स्तर एवं किस्म में कमी तथा मूल्य में वृद्धि को प्रोत्साहित करता है।
(2) अंशों में सट्टेबाजी (Speculation in shares)-अति-पूँजीकृत कम्पनियों के अंशों में निरर्थक सट्टेबाजी बढ़ जाती है जिससे वास्तविक विनियोक्ताओं के हितों को हानि होती है और समाज के बहुमूल्य साधनों का दुरुपयोग होता है।
(3) अर्थव्यवस्था में निराशा (Frustration in the economy)-अति-पूंजीकृत कम्पनियों में अंशों का बाजार-मूल्य गिर जाता है, वे बट्टे पर बिकने लगते हैं। इससे समस्त अर्थव्यवस्था पर निराशाजनक प्रभाव पड़ता है।
(4) उद्योगों का बन्द होना व बेरोजगारी बढ़ना (Closer of industries and Increasing unemployment)-अति-पूँजीकृत कम्पनियां धीरे-धीरे प्रतियोगिता में पिछड़ती जाती हैं,परिणामतः एक समय ऐसा आता है कि अति-पूँजीकृत कम्पनी को अपना व्यवसाय ही बन्द करना पड़ जाता है, इससे बेरोजगारी फैलती है।
(5) पूँजी-निर्माण एवं पूँजी की गतिशीलता पर प्रभाव (Effects on capital formation and mobility of capital)-अति-पूजीकृत कम्पनियों में अंशों का वास्तविक मूल्य उनके पुस्तकीय मूल्य से कम हो जाता है। परिणामतः विनियोजकों में विनियोजन की तत्परता कम हो जाती है और वे नयी कम्पनियों में। पंजी का विनियोग करने से कतराने लगते हैं। इस प्रकार अति-पूँजीकरण का पूँजी निर्माण एवं पूँजी की गतिशीलता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
- श्रमिकों पर प्रभाव (Effects on Workers)
(1) श्रम सुविधाओं में कटौती (Cut in labour welfare facilities)-अति-पूँजीकृत कम्पनियाँ कम लाभ होने के कारण श्रमिकों को दी जाने वाली विभिन्न सुविधाए कम कर देता है।
(2) छंटनी एवं वेतन में कमी (Retrenchment and Reduction in wages and salaries)-अति-पूँजीकृत कम्पनियाँ अपनी आय बढ़ाने के लिए श्रमिकों की छंटनी तथा उनके वेतन में भी कमी कर देती हैं।