BA 3rd Yea Hind Swaraj ( Ch 8,13,18 ) Study Material Notes in Hindi
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Swaraj ( Ch 8,13,18 )
इन्डो ऐंगलियन उपन्यास : एक संक्षिप्त सर्वेक्षण
इन्डो–ऐंगलियन साहित्य लगभग दो शताब्दियों की समृद्ध थाती के पश्चात् अब एक मान्यता प्राप्त विधा के रूप में व्यस्क बनकर आ गया है। इसमें भारतीयों द्वारा अंग्रेजी भाषा में प्रस्तुत साहित्य अथवा भारत के अंग्रेजी में सृजनात्मक लेख आते हैं। इस साहित्य का दूसरा अर्थ है-अंग्रेजी भाषा में भारतीय विषयों पर अंग्रेज लेखकों द्वारा रचित लेख जबकि इन्डो-इंगलिश साहित्य का अर्थ है-भारतीय साहित्य जो कि भारतीय भाषाओं से अंग्रेजी भाषा में रूपान्तरित किया गया। लगभग आधा शताब्दी पूर्व इस अन्तर पर विचार नहीं होता था। अंग्रेजी भाषा में भारतीय लेख एक निश्चित विधा के रूप में K.R.S.lyengar की पुस्तक “Indo-Anglian Literature” से उभर कर सामने आया। चलपति राव ने एक लेख जो Illustrated weekly of India, May 26, 1963 में छपा, में बल देकर कहा कि term “Indo-Anglian Literature” को James Cousins ने अंग्रेजी भाषा में लेखों के लिए प्रयुक्त किया।
अंग्रेजी की शिक्षा को Macaulay ने 1935 में भारत में शुरु किया तो कुछ भारतीय अंग्रेजी में लिखने लगे। Macaulay ने सम्भवत: अंग्रेजी बोलने वाले भारतीयों को साधारण भारतीय जनता से अलग करने के लिये ऐसा किया। परन्तु वास्तव में यह एक वरदान साबित हुआ। इस प्रयल ने भारतीयों के लिए एक खिड़की खोल दी, जिससे बौद्धिक, साहित्यिक और साधारण उन्नति के संदर्भ में भारतीयों को नये विचार मिले।
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इन्डो ऐंगलियन साहित्य को कुछ कारणों–आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक-से प्रोत्साहन मिला। इसके अतिरिक्त स्वयं अंग्रेजी भाषा ने शिक्षित भारतीयों को अपनी ओर खींचा। इस भाषा ने भारत में सृजनात्मक लेखकों की अभिव्यक्ति का एक निश्चित माध्यम प्रदान किया। यह माध्यम लचीला, सौन्दर्य से सम्बन्धित एवं साहित्यिक सुगन्ध वाला था। यह मत P.C.Kotoky का उनकी पुस्तक “The Indo-English Poetry” में है। भारत में कुछ बुद्धिजीवियों को अंग्रेजी बोलना और लिखना आनन्द देता था। वे इसे एक उपलब्धि मानते थे। यह एक तेजी से बढ़ता तरीका बन गया। Kotoky बल देकर कहता है कि सर्वप्रथम यह नकल पर आधारित था, और शीघ्र ही यह आत्मसात करने से सम्बन्धित हो गया, और इसके बाद धारण करने से जुड़ गया।”
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इस विधा के सबसे पहले लेखकों में पाश्चात्य शिक्षा वाले लोग थे, जिन्होंने भारतीय संस्कति की पश्चिम के लिए व्याख्या की। कविता ने बंगाल के सांस्कृतिक उत्थान को अपने में शामिल किया। कुछ इन्डो ऐंगलियन कवि जैसे-Henry De Rozia. ToruDutt आदि थे। इस प्रकार साहित्यिक जागृति का भारत में उषा काल हुआ। इसने फलने-फूलने वाले युग की ओर इंगित किया। यह अधिकतर कविता में हुआ। गैर उपन्यास गद्य की बहुतायत हुई, जिसका अधिकतर प्रयोग राजनैतिक विरोध और सामाजिक सुधार के लिए हुआ। परन्तु उपन्यास 1920 के दशक तक अनुपस्थित रहा (मीनाक्षी मुखर्जी)। नाटक बहुत थोड़ा लिखा गया।
समग्र पर दृष्टिपात करें तो इन्डो–ऐंगलियन साहित्य परिपक्वता व । इसी बीच आलोचना का एक नया विकास हुआ। साथ ही साहित्य में भारतीयपन आया जो विषय के चुनाव करने में, विचार के ताने-बाने में ओर भावुकता के प्रभाव में, सामग्री के गठन में और भाषा के सृजनात्मक प्रयोग में दृष्टिगोचर हुआ। (K.R.S. Iyengar). ‘कुछ शक्तियों ने अंग्रेजी भाषा को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में विकसित करने के लिए सहयोग दिया, उन शक्तियों ने इन्डो-ऐंगलियन साहित्य का विकास किया। इस साहित्य में कछ थोडे से लेखकों ने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है। यह इस बात को साबित करता है कि इन्डो-ऐंगलियन साहित्य परम्परा एक निश्चित शक्ति प्राप्त कर चुकी है।’ (V.K.Gokak)
यह एक बडा सत्य है कि इन्डो–ऐंगलियन लेखक अधिकतर कवि एवं उपन्यासकार बहधा अज्ञात रहे, जब तक कि उन्होंने विदेशों में अचानक लोकप्रियता एवं आलोचनात्मक मान्यता प्राप्त करके ध्यान को अपनी ओर नहीं खींचा। ये धारणा राजा राव, कमला मारकन्डे, रूथ परावर झाबवाला और कुछ अन्य के संदर्भ में विशेष रूप से सत्य हैं, उनमें विशेष इच्छा थी कि उनके ग्रंथ विदेशों में छपें।
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इस प्रकार इन्डो–ऐंगलियन साहित्य ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक की साहित्यिक ऊँचाई को प्राप्त किया। भारतीय लेखकों ने कुछ अत्यन्त सम्माननीय पुरस्कार प्राप्त किये, जो इस साहित्य की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति को सिद्ध करता है। गत आधी शताब्दी में इस साहित्य ने एक महत्वपूर्ण आलोचनात्मक ध्यान को आकर्षित किया है। R.K.Narayan, Raja Rao, Mulk Raj Anand, Anita Desai आदि उपन्यासकारों ने इस संदर्भ में भारी योगदान किया है।
उपन्यास–ऐंगलो–इन्डियन उपन्यास तीन चरणों में से होकर गुजरा है, थोड़े समय तक चलने वाला ऐतिहासिक उपन्यास प्रथम चरण में आता है। दूसरा चरण लम्बे समय तक चला, इस चरण ने राजनैतिक एवं सामाजिक चेतना से मुक्त दिया, और सामाजिक यथार्थवाद प्रस्तुत किया। तीसरे चरण में मनोवैज्ञानिक उपन्यास आया। इन्डो-ऐंगलियन उपन्यास तीन अवधियों में बांटा जा सकता है। (i) 1875-1920, (ii) 1920-1950, (iii) 1950 से अब तक।
प्रथम चरण–इन्डो–ऐंगलियन उपन्यास का शुभारम्भ बंगाल में हुआ। अतः बंगाली उपन्यासकारों, जैसे-R.C.Dutt, Bankim Chandra Chatterjee और R.N. Tagore, जिनके उपन्यासों का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया गया-ने प्रारम्भिक इन्डो-ऐंगलियन लेखकों पर भारी प्रभाव डाला। अंग्रेजी अनवादों और अंग्रेजी उपन्यास पर रूसी और फ्रांसीसी उपन्यास का बड़ा प्रभाव पड़ा।
रमेश चन्द्र दत्त ने बंगाली भाषा में छ: उपन्यास लिखे जिनमें से दो का उन्होंने स्वयं अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया। उनके उपन्यासों में वर्णन की स्पष्टता पात्रों का सुन्दर निर्माण और भारतीय दृश्य की विशेषता है। “The Lake of Palms” (1902) विधवा-विवाह का चित्रण करता है और इस प्रकार समाज सुधार की विवेचना करता है। “The Slave Girl of Agra” (1909) एक ऐतिहासिक रोमांस है, जो सोलहवी एवं सतरहवीं शताब्दियों के मुगल शासन का चित्रण करता है।
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__बंकिम चन्द्र चटर्जी को बंगाली उपन्यास का जनक कहा जाता है, चूंकि उन्होंने उपन्यास को दार्शनिक आयाम प्रदान किये। उन्होंने चार उपन्यास लिखे। उनके ऐतिहासिक उपन्यासों ने इन्डो-ऐंगलियन ऐतिहासिक उपन्यासों को एक नमूना प्रदान किया। उन्होंने सामाजिक समस्याओं के प्रति दार्शनिक रूप से चित्रण किया। उनका उपन्यास “The Poison Tree” 1884 में प्रकाशित हुआ।
रविन्द्र नाथ टैगोर के उपन्यासों में (i) “Gora” (1923), (ii) “The Wreck” (1921), और (ii) “The Home And The World” है। इन सभी उपन्यासों का विषय सामाजिक है, यद्यपि पहला उपन्यास देश भक्ति से सम्बन्धित है। टैगोर को एक प्रसिद्ध इन्डो ऐंगलियन कवि माना जाता है। उन्होंने 1913 में अपनी कविताओं के संकलन”गीतान्जली” के लिये नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया। यदि R.C. Dutt ने उपन्यास को यथार्थवाद और समाज सुधार प्रदान किया तो टैगोर मनोवैज्ञानिक चित्रण की गहराई लाये।
दूसरा चरण (1920-1950)-इस अवधि के इन्डो-ऐंगलियन उपन्यास में सामाजिक उपन्यास, रोमांस और जासूसी उपन्यास शामिल हैं। यह उपन्यास महिलाओं की स्थिति का चित्रण करता है, इस उपन्यास में शिक्षाप्रद होने और प्रचार का दोष है। इस अवधि के उपन्यास की साधारण प्रवृत्ति ऐतिहासिक थी। ऐतिहासिक Romance एक लोकप्रिय विधा थी।
दूसरी अवधि का प्रारम्भ वास्तव में 1920 से माना जाता है। अब उपन्यासकार अपनी कला ओर आकृति के विषय में चेतन हो गये। इस अवधि का उपन्यास सामाजिक एवं राजनैतिक समस्याओं के प्रति घूम गया। सामाजिक यथार्थवाद इस अवधि के उपन्यास की साधारण प्रवृत्ति थी। K.S.Venkataramani, D.E.Karaka, Raja Rao, Mulk Raj Anand एवं R.K. Narayan इस अवधि के प्रमुख उपन्यासकार हैं। Venkataramani
खेती सम्बन्धी विषयों का उपन्यासकार है। उन्होंने आजादी के संघर्ष और ग्रामीण समाज पर लिखा। वे तमिल भाषा में अधिक सफल रहे। परन्तु उन्होंने साहित्यिक जीवन का आरम्भ अंग्रेजी भाषा से किया।
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D.E.Karaka को उच्च वर्ग का उपन्यासकार माना जाता है। उनकी शैली पत्रकार जैसी है, उनके कथानक गुथे हुए हैं और मानवीय भावों का चित्रण करने में उनकी पकड़ बहुत मजबूत है परन्तु उनके ग्रन्थों में गहराई कम है।
Raja Rao तीन बड़े उपन्यासकारों में हैं, अन्य दो R.K. Narayan और Mulk Raj Anand हैं। Raja Rao उपन्यास में दार्शनिक आयामों को लाये। उनके उपन्यासों में “कान्थापुरा” (1938),”दा सरपेंन्ट एन्ड दा रोप” (1960). “दा कैट एंड शेक्सपियर” (1965) आदि हैं। इसके अतिरिक्त दो कहानी संग्रह भी उन्होंने लिखे। वे भारत एवं EastWest टकराहट के सर्वोत्तम लेखक हैं। वे दार्शनिक उपन्यासकार हैं। उनकी पुस्तकों में सामाजिक चिन्ता भी पायी जाती है।
Mulk RajAnand दूसरे माननीय इन्डो-ऐंगलियन उपन्यासकार हैं। उन्होंने R.K. Narayan की तरह वृहत रूप में लिखा है। परन्तु वे Narayan की भांति लोकप्रिय नहीं हैं। उनके प्रारम्भिक उपन्यासों में, “Untouchable” (1935), “Coolie” (1936) और “Two Leaves and aBud” (1937) आते हैं। इनसे एक नयी प्रवृत्ति यथार्थवाद एवं सामाजिक विरोध की शुरुआत हुई। इन उपन्यासों ने Anand को पद्दलित वर्ग एवं शोषित वर्ग के लिये प्रथम संर्घषकर्ता बना दिया। उनका मानवतावाद बड़ा वैज्ञानिक है। उनके उपन्यास “Confessions of a Lover” ने 1978 में E.M. Forster पुरस्कार जीता और इसे भारतीय अंग्रेजी भाषा में सृजनात्मक साहित्य की सर्वोत्तम कृति माना गया। अपने सोलह उपन्यासों एवं छ: लघु कहानी संग्रहों और कला, रंजन एवं साहित्य पर अनेक पुस्तकों के साथ Anand को एक बड़ा लेखक माना जाता है।
___R.K. Narayan, M.R. Anand की भांति एक वृहत लेखक है। वे आंचलिक उपन्यास के जनक हैं। उनका अंचल केवल ‘मालगुडी’ है जो सुदूर दक्षिण भारत में एक काल्पनिक नगर है। मूल रूप से वे एक कलाकार हैं। उन्होंने कथानक के संगठन पर और नैतिक विश्लेषण पर विशेष ध्यान दिया है। वे दक्षिण भारत की साधारण जनता के मनोविज्ञान पर विशेष पकड़ रखते हैं। “The Guide” उनका सर्वोत्तम उपन्यास है। “The Bachelor of Arts” (1951). “The English Teacher” (1955), “The Financial Expert” (1956) और अन्य बहुत से उपन्यास महत्वपूर्ण हैं। उनका विडम्बनात्मक हास्य उनके विचारों का बौद्धिक विश्लेषण करने का मुख्य साधन है। Chaman Nahal, Khwaja Ahmed Abbas, Humayun Kabir, K. Nagarajan और अन्य अनेकों ने Indo-Anglian उपन्यास में विशेष योगदान किया है।
तीसरी अवधि (1950 से अब तक)-उपन्यास लेखन की प्रवाहित धारा में आत्मनिरीक्षण सम्बन्धी अथवा मनोवैज्ञानिक उपन्यास की नवीन प्रवृत्ति का सूत्रपात हुआ,
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जैसे Sudhin N. Ghosh के उपन्यास। इस अवधि के प्रसिद्ध उपन्यासकारों-भवानी भट्टाचार्य, खुशवन्त सिंह, मनोहर मुल गांवकर, बी.राजन, अरुण जोशी, चमन नहल और अन्य अनेक आते हैं। महिला उपन्यासकारों का उदय इस अवधि का विशेष पक्ष है-कमला मारकण्डे, नयनतारा सहगल, रुथ झाबेवाला, अनिता देसाई और अन्य ने ठोस योगदान दिया। इन उपन्यासकारों में अधिकतर ने मिश्रित उपन्यास लिखे हैं-इनमें आत्मकथा और समाजशास्त्र का मिश्रण है। इनका मुख्य उद्देश्य समाज सुधार था।
परन्तु स्वतन्त्रता के बाद का युग कुछ महिला उपन्यासकारों को जैसे-कमला मारकण्डे, नयनतारा सहगल, अनिता देसाई आदि को विशेष प्रसिद्धि में लाया। उनकी स्त्रियोचित अनुभूति एवं समझदारी ने कमाल कर दिया। उन सबका एक बड़ा समूह बनता है। उन्होंने महिला समाज में विशेष जागृति पैदा की।
इन्डो–ऐंगलियन उपन्यास इन्डो–ऐंगलियन साहित्य की एक समृद्ध एवं विशिष्ट विधा है। यह सामाजिक एवं राजनैतिक विचार की गाडी साबित हआ। इसने भारत के अन्य साहित्यों को समृद्ध बनाया। इस उपन्यास ने विभिन्न प्रकार के व्यक्तिगत पात्रों को प्रस्तुत किया। अभी हाल ही में अनिता देसाई ने जटिल पात्र चित्रण को अपनाया है।
इसका स्थान भारतीय स्वभाव के लिए कदाचित उपन्यास ज्यादा उपयुक्त है। इसलिए इन्डो-ऐंगलियन साहित्य का अधिकतर भाग उपन्यास के रूप में है, और शायद इसलिए भी कि भारतीय लेखकों को साधारण पाठकों की आवश्यकता को पूरा करना पड़ता है। इससे भी ऊपर तथ्य यह है कि उपन्यास कल्पना पर आधारित साहित्य की विधा है जो मानव एवं समाज के सम्बन्ध को कलात्मक रूप प्रदान करता है। इस उपन्यास ने आधुनिक भारत को राष्ट्रीय साहित्य की मुख्य धारा में स्थापित किया है।
विषय एवं पहचान–जो उपन्यास भूख एवं निर्धनता और पूर्व-पश्चिम टकराहट का चित्रण करते हैं उन पर परम्परा एवं आधुनिकता की टकराहट मंडराती सी लगती है। यह विषय कमला मारकण्डे, भवानी भट्टाचार्य, मुल्कराज आनन्द एवं अन्य उपन्यासकारों का मुख्य विषय बन गया है। पहचान के लिये तलाश के विषय को भी इन्डो-ऐंगलियन उपन्यास ने एक विषय के रूप में धारण किया।
उपसंहार–परन्तु अब तक इन्डो–ऐंगलियन उपन्यास ने इन्डो-ऐंगलियन साहित्य में एक विधा की परिपक्वता एवं माननीय स्थिति प्राप्त कर ली है। उपरोक्त चर्चित उपन्यासकारों ने उपन्यास की वृद्धि और परिपक्वता के लिये महत्वपूर्ण योगदान दिया है। विषय की दृष्टि से इसका विस्तार विशाल है। इन्डो-ऐंगलियन उपन्यास में कुछ पक्षों की कमी भी है, परन्त इसकी खोज की शक्ति, ऐतिहासिक मूल्य एवं समृद्धि ने सबकी क्षति-पूर्ति कर दी।
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| मुल्कराज आनन्द का जीवन और लेखन |
जन्म–मुल्कराज आनन्द ‘तीन महान‘ इन्डो-ऐंगलियन उपन्यासकारों में से एक है। उनका जन्म 12 दिसम्बर 1905 को लालचन्द आनन्द के घर पेशावर में हुआ। उनके पिता अमृतसर में एक कारीगर थे, परन्तु वे अंग्रेज भारतीय सेना में भर्ती हो गये। उनकी माता ईश्वर कौर एक पंजाबी महिला थी। आनन्द ने अपनी आँखों से घोर निर्धनता और गरीबी देखी थी। ग्यारह वर्ष की आयु में उन्हें मृत्यु का भयानक अनुभव हुआ और वह भी उनकी अपनी चचेरी बहन कौशल्या की मृत्यु का। यह आघात और भी ज्यादा गहन हो गया जब उनके चाचा प्रताप और चाची देवकी की भी मृत्यु हो गई। इस स्थिति ने आनन्द को जीवन और मृत्यु का अर्थ सोचने के लिए प्रेरित किया।
निर्माणकारी प्रभाव–जलियांवाला बाग की घटना ने आनन्द पर गहरा प्रभाव डाला, और आगे चलकर इस घटना ने उन्हें अपने उपन्यासों में अंग्रेजों को Caricature करने के लिये अग्रसर किया। उन्होंने खालसा कालिज, अमृतसर में अध्ययन किया। वहाँ पर वे दार्शनिक कवि इकबाल से मिले जिनका आनन्द पर स्थायी प्रभाव पड़ा। 1925 में डाक्टरेट की डिग्री पाने के लिये लन्दन गये। वहाँ पर अपने Waish प्रोफेसर की बेटी आइरिन से उन्हें प्रेम हो गया। उन्होंने अपने आपको बड़े उन्मुक्त तरीके से व्यक्त किया। दो सो पृष्ठ की स्वीकारोक्ति आनन्द के उपन्यास के लिये एक मुख्य स्रोत बन गई। परन्तु वह लड़की उन से विवाह न कर सकी क्योंकि उनकी पुस्तक प्रकाशित न हो सकी।
दर्शनशास्त्र–दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी के रुप में आनन्द ने Freud और Jung का अध्ययन किया। उन पर “Origin of Species” के सिद्धान्त का गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने T.S.Eliot के Journal “Literary Criterion” में लिखना प्रारम्भ किया। इंग्लैण्ड में आनन्द ने कला का भी अध्ययन किया। 1932 में वे भारत वापस आ गये और कुछ समय के लिये गांधी जी के साथ साबरमती में रहे और अपना सबसे पहला उपन्यास “Untouchable” लिखा।
प्रगतिशील लेखन–इसके पश्चात् वे इंग्लैण्ड लौट गये और 1935 में अपना दूसरा उपन्यास “Coolie” लिखा। उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की। तत्पश्चात वे Spain चले गये और अमेरिकी उपन्यासकार Ernest Heminaway से मिले। 1938 में उन्होंने प्रगतिशील लेखक आन्दोलन का गठन किया और इस आन्दोलन के journal “Indian Literature” का सम्पादन किया। इसमें आनन्द ने फासिस्टवाद एवं साम्राज्यवाद के खिलाफ अपने विचारों को खुलकर व्यक्त किया।
स्वतन्त्रता संग्राम–1939 में वे लन्दन चले गये और सीधे मात-भूमि की आजादी के लिये संघर्ष में कूद पड़े। उन्होंने अंग्रेज जनमत को भारत के पक्ष में लाने का प्रयत्न किया।
215 विदेशी दौरे–द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने पर आनन्द भारत लौट आये। इस समय तक उनकी बहुत सी लघु कहानियाँ और उपन्यास प्रकाशित हो चके थे। 1948 में आनन्द रूस गये जहाँ पर उनकी पुस्तकों को लोकप्रियता मिल चकी थी। इसके बाद उन्होंने कई देशों का दौरा किया। “Morning Face” उनका अत्यन्त महत्वपूर्ण उपन्यास है और उनकी लेखनी मृत्यु तक व्यस्त रही। वे एक कला पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे। वे मुम्बई के पास खण्डाला में रहते थे। वे चुपचाप तरीके से उदार थे। उनमें नाटक और हास्य की समझ थी। उनको अपने साथियों के दुख की चेतना थी। उनका जीवन-चक्र कार्य एवं मनोरंजन और कार्य कलाप एवं आराम के बीच चलता रहता था।
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बहु आयामी मेधा–आनन्द बहु आयामी मेधा शक्ति और वृहत स्तर के लेखक थे। K.R.S. Iyengar आनन्द को एक विविध प्रतिभावान व्यक्तित्व मानते हैं-वे उपन्यास और कहानी लेखक हैं, उन्होंने “Persian Painting”. “The Hindu View of Art”, “Homage toKhajuraho” पुस्तकें लिखी हैं, कभी-कभी टैगोर प्रोफेसर ऑफ आर्ट एन्ड लिट्रेचर रहे के लेखक हैं। उन्होंने भारत की आजादी के आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया, उन्होंने प्रगतिशील साहित्य के आन्दोलन को संगठित किया। वे लन्दन में V.K.Krishna Menon के सहयोगी रहे और अंग्रेजों के जनमत को भारत के स्वतन्त्रता के पक्ष में ढाला। उन्होंने दरिद्रनारायण के लिये संघर्ष को उठाया और अपने को जनता की सेवा तथा समाज के प्रति समर्पित किया। वे सोचते, प्रेम करते, हंसते, तर्क देते, यात्रा करते और बहुत अधिक वार्तालाप करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि वे संसार के पाप, दुख एवं कठोरता के बोझ को महसूस करते हैं। वे कुछ घबरा गये परन्तु वे एक आकर्षक एवं उत्साही मानव हैं और लगातार संघर्ष करते रहे कि ठोस एवं समग्र रहन-सहन को साकार करें। वे कई प्रकार से मानवतावादी एवं समाजवादी थे। वे अंध विश्वास को, कट्टरपन को, जाति-पाँति को, समूहों को, पूँजीवाद को, शोषण को, अति जनसंख्या को. अत्याचार को. फासिस्टवाद को. साम्राज्यवाद को एटमी हथियारों को इकट्ठा करने को, युद्ध को, बड़े पैमाने पर जातियों को मार डालने आदि से घृणा करते थे।
समस्यायें–आनन्द सोचते थे कि हमारी अधिकतर समस्याओं को मानव ने उत्पन्न किया है और मानव ही उनको हल कर सकता है। मानव के दुखों का कारण होने के कारण अब उसे कठोर परिश्रम करना चाहिए ताकि अपनी निजी मुक्ति प्राप्त कर सके। वे अपने लेखों एवं प्रचारों के माध्यम से कोशिश करते रहे ताकि मानव जाग्रत हो और एक सच्चा स्वप्न देखे और इच्छा-शक्ति प्राप्त करे कि वह भारत में और समस्त संसार में मानवता के पुनः निर्माण के लिये व्यस्त हो।
विविध रुचियाँ–आनन्द बाल्यकाल से ही बहुत ज्यादा अध्ययन करते थे। वे सुन्दर रुचियों वाले मानव थे, वे कला एवं पुस्तकों को प्यार करते थे। उन्होंने उर्दू एवं अंग्रेजी साहित्य एवं महाद्वीप का साहित्य पढ़ा। उन्होंने Gorky, Hugo, अंग्रेजी के रोमान्टिक कवियों का भी अध्ययन किया। आनन्द स्वयं कहते हैं, “मैंने जीवन पर दृष्टिपात करने को T.R.Pury के माध्यम से सीखा।” उन्होंने शोध की उपाधि दर्शनशास्त्र में प्राप्त की और राधा कृष्णन द्वारा लिखे हुए भारतीय दर्शन का अध्ययन किया। उनका शोध कार्य Berkley, Hume और Russel के दर्शन पर था। Russel की भांति आनन्द विश्वास करते थे कि मनुष्य को या तो पूर्ण बरबादी अथवा विश्व एक संघ के रूप में इन दोनों में से एक को चुनना होगा।
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विश्व शान्ति–आनन्द संसार में शान्ति के पक्षधर थे। उनको संसार में शान्ति एवं सहमति, विभिन्न राष्ट्रों के बीच सृजनात्मक कार्यों के माध्यम से बढ़ाने के लिये 1952 में विश्व शान्ति पुरस्कार मिला।
__ विस्तार–उनका लेखन कला से सौन्दर्य प्रसाधनों तक, साहित्यिक आलोचना से पाक-शास्त्र तक व्याप्त है। उनके अधिकतर उपन्यास, कहानियाँ आदि संसार की विभिन्न भाषाओं में अनुवादित की गई है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक विषयों पर निबन्ध लिखे हैं जैसे-कलात्मक आलोचना और कविता। वे अनेक पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखते रहे। भारत में उनको 1967 में पद्मभूषण पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया। – व्यक्ति के रूप में वे सदैव उपलब्ध रहते थे, उत्साही थे और जीवन्त थे। उनके व्यक्तित्व में आकर्षण एवं प्रसन्नता, प्रेम और जोश था। उनके मित्र सज्जाद जहीर ने उनके व्यक्तित्व की भूरि-भूरि प्रशंसा की है, उन्होंने उन्नतिशील लेखकों का संघ स्थापित करने में बड़ी सहायता की। सज्जाद जहीर कहते हैं, “आनन्द एक आश्चर्यपूर्ण मानव, विश्वासपात्र मित्र और एक प्रखर वार्ताकार हैं।” वे एक विचित्र आशावादी मानव हैं। वे निराशावादी व्यक्ति को कर्मशील बनाने के लिये सक्षम हैं। संसार में जो कुछ भी अच्छा और प्यार करने योग्य है जैसे अच्छी पुस्तकें, अच्छी कलाकृतियाँ एवं अच्छे तरीके उन सबके प्रति वे बड़े संवेदनशील प्रेमी हैं। वे राष्ट्रों के बीच स्थायी शान्ति और मित्रतापूर्ण सम्बन्धों के पक्ष-धर हैं। इसके साथ-साथ वे उस सबके कठोर आलोचक हैं जो नष्ट हो रहा है जैसे मानवताहीन
और गिराने वाले रिवाज, तरीके, सामाजिक एवं राजनैतिक संस्थायें जो पुरानी पड़ गई हैं, वाममार्गी विचार आदि। टैगोर एवं नेहरू के शिष्य होने के नाते उन्होंने इस देश की आत्मा को समझने की भारी कोशिश की है जो भारतीय विचार एवं संस्कृति के माध्यम से अपने को व्यक्त कर रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय मस्तिष्क का गहरा ज्ञान तथा विभिन्न प्राचीन सामाजिक रिवाज तथा संस्थाओं के आलोचनात्मक मूल्यांकन ने आनन्द को समझौता न करने वाला संगठनकर्ता एवं आन्दोलनकारी बना दिया है।”
व्यक्तिगत गुण–“मुल्कराज आनन्द प्रखर बुद्धि वाले एवं एक उत्तेजक भावना वाले, मधुर आवाज वाले, उससे थोड़ा प्यार करने वाले व्यक्ति हैं। वे एक ऐसे व्यक्ति हैं जो किसी के कटु वचनों पर ध्यान नही देते, सीधे आप पर चोट करते हैं परन्तु कोई निशान नही छोड़ते।”
“इस प्रकार आनन्द पूर्णतया: मानवतावादी हैं। मानवतावाद में उनका स्थायी विश्वास जिसने उनको प्रिय व्यक्ति बनाया है और उनमें असीमित आकर्षण एवं बहुत सारी रुचिया असा की हैं। वे एक विश्वास पात्र मित्र, अनथक काम करने वाले, एक उत्साही संगठनकर्ता,
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चहमखी लेखक, एक कभी न रुकने वाला, गरीबों का काम करने वाला एक ऐसा व्यक्ति जो असमानता एवं अन्याय के विरुद्ध काम करने वाला, एवं एक पक्का मानवतावादी जिसका मानव तथा सृजनात्मक कला में अटूट विश्वास है जिस पर वह अपनी आशायें बनाता (G.S. Balram Gupta) उपसंहार-आनन्द अत्यन्त उत्तेजित करने वाला मानव था। उसमें एक विशेष प्रकार का गुण था जो जीवित मस्तिष्क को उत्तेजित करता है और एक आधार का आभास कराता है जिस पर निर्माण किया जा सके। ऐसे मानव दुर्लभ होते हैं। उनमें एक लग्न थी और एक धार्मिक जोश। उनकी अपनी त्रुटियाँ भी थी परन्तु वे आलोचना की चिन्ता करके अपने को ढाल लेते थे। वे बड़े लोगों की भी आलोचना कर देते थे जब उनके दृष्टिकोण गलत हो परन्तु ऐसा केवल धीरे से किया जाना चाहिए।
अन्त में आनन्द एक जीवित संस्था थे, जो सदैव उत्साह प्रदान करती रहेगी, यद्यपि शारीरिक रूप से 29 सितम्बर 2004 को वे हमें छोड़कर चले गये।
सारांश
सामाजिक बहिष्कृत लोगों की कालोनी, जो कि एक अप्रिय स्थान था. गारे के बने घरों का एक गुच्छा थी। इस कालोनी के निवासी धोबी, चमड़े का काम करने वाले, नाई, घास काटने वाले इत्यादि नीची जाति के लोग थे।
बाखा, एक जवान और 18 वर्ष का हष्ट-पुष्ट लड़का था। जो कि पूरे शहर के भंगियों के जमादार लाखा का पुत्र था। उसके पास लैट्रिन की तीन कतारों की सफाई का दायित्व था। बाखा ने कुछ साल अंग्रेजों की बैरकों में काम किया था। अंग्रेजों ने उससे सुलझा हुआ तथा अच्छा व्यवहार किया था। उसे अंग्रेजों के तौर-तरीकों की नकल करने में आनन्द मिलता था। छोटा चमडे का काम करने वाले का लड़का, भी उसकी नकल किया करता था और रामचरण, धोबी का लड़का, उन दोनों की नकल किया करता था। वे बाखा के मित्र थे।
यह पतझड़ की एक सुबह थी। हालांकि सर्दी तथा गर्मी दोनों में ही बाखा उन्हीं कपड़ों को पहने हुए सोता था जिन्हें वह दिन में पहने रखता था फिर भी कम्बल, जतों, ओवरकोट के अन्दर उसे ठण्ड लग रही थी। उसका पिता लाखा, भाई राखा तथा बहन सोहिनी रजाई ।
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